गुर्जर प्रतीक चिन्ह – सम्राट कनिष्क का शाही निशान
[गुर्जर लोगो (Gujjar Logo) हैं ब्रह्मास्त्र (पाशुपतास्त्र) का प्रतीक】
लेखक:- मुकेश गुर्जर
सम्राट कनिष्क के सिक्को पर पाए जाने वाले शाही निशान को कनिष्क का तमगा भी कहते है| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं इसलिए इसे चार शूल वाला ‘चतुर्शूल तमगा” भी कहते हैं| कनिष्क का ‘चतुर्शूल तमगा” सम्राट और उसके वंश / ‘कबीले’ का प्रतीक हैं| इसे राजकार्य में शाही मोहर के रूप में भी प्रयोग किया जाता था| कनिष्क के पिता विम कडफिस ने सबसे पहले ‘चतुर्शूल तमगा’ अपने सिक्को पर शाही निशान के रूप में प्रयोग किया था| विम कडफिस शिव का उपासक था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| माहेश्वर का अर्थ हैं- शिव भक्त
शैव चिन्ह पूर्व में भी तमगे के रूप में प्रयोग हो रहे थे| नंदी बैल के पैर का निशान वाला ‘नन्दीपद तमगा’ शासको द्वारा पूर्व में भी सिक्को पर प्रयोग किया गया था| इसलिए कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि चतुर्शूल तमगा शिव की सवारी ‘नंदी बैल के पैर के निशान’ और शिव के हथियार ‘त्रिशूल’ का ‘मिश्रण’ हैं| अतः विम कड्फिस और कनिष्क का तमगा एक शैव चिन्ह हैं| तमगे का नीचे वाला भाग नंदीपद जैसा हैं, परन्तु इसमें त्रिशूल के तीन शूलो के स्थान पर चार शूल हैं?
त्रिशूल के अतिरिक्त, शिव के पास चार शूल वाला एक और परम शक्तिशाली अस्त्र हैं, जिसे पौराणिक साहित्य में पाशुपतास्त्र कहा गया हैं| मान्यता हैं कि शिव पाशुपतास्त्र से दैत्यों का संहार करते हैं तथा युग के अंत में इससे सृष्टी का विनाश करेंगे| पाशुपतास्त्र एक प्रकार का ब्रह्मशिर अस्त्र हैं| वस्तुतः ब्रह्मशिर अस्त्र एक प्रकार का ब्रह्मास्त्र हैं| सभी ब्रह्मास्त्र ब्रह्मा द्वारा निर्मित अति शक्तिशाली और संहारक अस्त्र हैं| हैं| ब्रह्मशिर अस्त्र साधारण ब्रह्मास्त्र से चार गुना शक्तिशाली हैं| साधारण ब्रह्मास्त्र की तुलना आधुनिक परमाणु बम तथा ब्रह्मशिर अस्त्र की तुलना हाइड्रोजन बम से की जा सकती हैं| ब्रह्मशिर अस्त्र के सिरे पर ब्रह्मा के चार मुख दिखाई पड़ते हैं, अतः दिखने में यह एक चतुर्शूल भाला अथवा एक तीर हैं| इसे चार प्रकार से चलाया जा सकता हैं- संकल्प से , दृष्टी से , वाणी से और कमान से| शिव के पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) में चार शूल हैं, अतः विम कड्फिस और कनिष्क के तमगे के चार शूल इसका प्रतिनिधित्व करते हैं|
कनिष्क के तमगे में चतुर्शूल पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि प्राचीन भारत में पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर) के अंकन का अन्य उदहारण भी हैं| राजघाट, वाराणसी से एक मोहर प्राप्त हुई हैं, जिस पर दो हाथ वाली एक देवी तथा गुप्त लिपि में दुर्ग्गाह उत्कीर्ण हैं, देवी के उलटे हाथ में माला तथा तथा सीधे हाथ में एक चार शूल वाली वस्तु हैं| चार शूल वाली यह वस्तु पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र) हैं, क्योकि पाशुपतास्त्र शिव की पत्नी दुर्गा का भी अस्त्र हैं| दुर्गा ‘नाना’ के रूप में कुषाणों की अधिष्ठात्री देवी हैं| रबाटक अभिलेख के अनुसार नाना (दुर्गा) कनिष्क की सबसे सम्मानीय देवी थी तथा नाना (दुर्गा) के आशीर्वाद से ही उसे राज्य की प्राप्ति हुई थी| अतः खास तौर से दुर्गा के हाथ में ‘पाशुपतास्त्र’ (ब्रह्मशिर) के अंकन से यह बात और भी अधिक प्रबल हो जाती हैं कि कनिष्क के तमगे में उत्कीर्ण चार शूल पाशुपतास्त्र का ही प्रतिनिधत्व करते हैं| नाना देवी का नाम आज भी नैना देवी (दुर्गा) के नाम में प्रतिष्ठित हैं| इनका मंदिर बिलासपुर, हिमांचल प्रदेश में स्थित हैं| यह मान्यता हैं कि नैना देवी की मूर्ती (पिंडी) की खोज एक गूजर ने की थी| ए. कनिंघम ने गूजरों की पहचान ऐतिहासिक कोशानो (कुषाणों) के रूप में की हैं| अतः कुषाणों का नाम आज भी नाना (दुर्गा) से जुड़ा हुआ हैं|
आंध्र प्रदेश के विजयवाडा स्थित ‘कनक दुर्गा’ मंदिर का नाम और इसकी स्थपना की कथा भी कनिष्क का नाम दुर्गा पूजा मत तथा शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र से जोड़ते हैं| छठी शताब्दी में भारवि द्वारा लिखित ‘किरातार्जुनीयम्’ के अनुसार शिव और अर्जुन के बीच एक युद्ध आंध्र प्रदेश के विजयवाडा स्थित इन्द्र्कीलाद्री पर्वत पर हुआ था| युद्ध के पश्चात, शिव ने अर्जुन की वीरता से प्रसन्न होकर, उसे पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र, चार शूल वाला तीर) प्रदान किया| शिव के अतिरिक्त पाशुपतास्त्र शिव की पत्नी दुर्गा का अस्त्र हैं| अतः अर्जुन ने इसी स्थान पर दुर्गा की उपासना की तथा भविष्य में कौरवो से होने वाले युद्ध में विजय प्रप्ति के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त किया| अर्जुन इस स्थान पर दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया, जो अब कनक दुर्गा के नाम से जाना जाता हैं| अल बिरूनी (975-1048 ई.) ने अपनी पुस्तक तह्कीके हिन्द में कनिष्क को कनक (कनिक) लिखा हैं| अतः कनक दुर्गा मंदिर का नाम इसके कनिष्क से सम्बंधित होने का संकेत करता हैं| सातवी शताब्दी में हिंदुस्तान आने वाले चीनी तीर्थयात्री वांग हसूँ-त्से (Wang Hsuan-tse) के अनुसार कनिष्क ने महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के सातवाहन शासक पर आक्रमण भी किया था| अतः संभव हैं कनिष्क विजयवाडा आया हो तथा उसने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया हो| अतः यह तथ्य कि अर्जुन के द्वारा बनवाया गया दुर्गा मंदिर कनिष्क के नाम से जाना जाता हैं, कनिष्क के नाम को दुर्गा पूजा मत के विकास और पाशुपतास्त्र (ब्रह्मशिर अस्त्र, चार शूल वाला तीर) के प्राप्तकर्ता अर्जुन के नाम से समीकृत एवं सम्बंधित करता हैं|
शिव और दुर्गा पति-पत्नी हैं, इसलिए उनसे सम्बंधित धार्मिक विश्वासों को कई बार संयुक्त रूप से देखा जाना अधिक उचित हैं| शैव मत की तरफ झुकाव रखने वाले कोशानो सम्राटो की दुर्गा पूजा मत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी| अतः कोशानो सम्राटो के सिक्को पर शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र का अंकन एक स्वाभविक प्रक्रिया हैं| निष्कर्षतः कनिष्क का शाही निशान ‘चतुर्शूल तमगा’ शिव-दुर्गा के पाशुपतास्त्र तथा नंदी के के पैर के निशान का मिश्रण हैं|
सन्दर्भ ग्रन्थ –
1. भास्कर चट्टोपाध्याय, दी ऐज ऑफ़ कुशान्स- ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, कलकत्ता, 1967
2. भारत भूषण, दी अमेजिंग आर्चर, लोनावाला, 2011
3. श्री पद्म, विसिस्सीटयूड्स ऑफ़ दी गॉडेस: रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ दी ग्रामदेवता, 2013
4. जॉन एम, रोजेनफील्ड, दी डायनेस्टिक आर्ट्स ऑफ़ कुशान्स
5. जे. ए. बी. वैन ब्युइतेनेन (संपादक), दी महाभारत, खंड I, शिकागो, 1973
6. मैग्गी लिड्ची-ग्रैस्सी, दी ग्रेट गोल्डन सैक्रिफाइस ऑफ़ दी महाभारत, नोइडा, 2011
7. बी. एन. मुख़र्जी, नाना ऑन लायन: ए न्यूमिसमैटिक स्टडी, एशियाटिक सोसाइटी, 1969
8. उमाकांत पी. शाह, जैन-रूप-मंडन (जैन इकोनोग्राफी), नई दिल्ली, 1987
9. चिदत्मन (स्वामी), दी रिलीजियस स्क्रिपचर ऑफ़ इंडिया, खंड I, 2009
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5. जे. ए. बी. वैन ब्युइतेनेन (संपादक), दी महाभारत, खंड I, शिकागो, 1973
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